सर्फ़ का घोल लेके वो बच्चा हवा में बुलबुले उड़ा रहा था
कुछ उनमें से फूट जाते थे खुद-ब-खुद
कुछ को वो फोड़ देता था उँगलियाँ चुभाकर
और कुछ उड़कर चले जाते थे
उसकी पहुँच से बहुत दूर
ऐसा ही एक बुलबुला
जाकर चस्प हो गया था आसमान पर
चाँद की शक्ल में
हर रात छत पर जाके मैं तकता रहता हूँ आकाश को
लगता है उफनता हुआ चाँद भी शायद
बुलबुले सा
लहराता हुआ उतर आएगा मेरी छत पर |
बहुत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी रचना ! हार्दिक शुभकामनायें !
ReplyDeleteबहुत बारीक-सी कहन...मन को छूने वाली...
ReplyDeleteचाँद का एक और अनूठा प्रयोग.बहुत सुन्दर प्रस्तुति.
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