Thursday, August 18, 2011

मेरी त्रिवेनियाँ...


1 .  एक को समझाऊँ तो दूसरी रोने लगती है ,
       थक -सा गया हूँ सबको मनाते मनाते ,
       
       ये तमन्नाओं का कटोरा कभी भरता ही नहीं |
 
2 .   मैंने छिपा लिया उन्हें मुट्ठियों में मोती समझकर ,
       तुमने पोंछ दिया हथेली से पानी कहकर ,
      
       या खुदा ! आंसूओं का मुकद्दर भी जुदा-जुदा होता है ?
 
3 .  ना जाने क्या चुभता रहा रात भर आँखों में ,
      मसलते मसलते लाल हो गईं आँखें मेरी ,
      
      सुबह धोईं जो शबनम से बूंदों के साथ चाँद निकला | 
 
4 .  तेरे लिए अग़र बाँध भी दूं सागर को ,
      क्या मिलेगा इन बेकाबू जज़्बातों को कैद कर ,
      
      दरवाज़े से टकराकर लहरें शोर मचाती रहेंगी  |
 
5 .  जाऊं कितना भी दूर तुमसे किसी भी दिशा में ,
      टकरा ही जाता हूँ किसी ना किसी मोड़ पर ,
     
      सच ही कहा है, किसी ने  कि दुनिया गोल है  |
 
6 .  कुछ अरसे पहले तेरे हाथों कि खुशबु रह गई थी हर जगह ,
      वही महक , महकती रहती है आज भी , लफ़्ज़ों में ,
    
      डायरी के पन्नों में बसी यादें अब भी गीली हैं |

Friday, August 5, 2011

अस्तित्व...







देखे हैं कभी तुमने,
पेड़ की शाखों पर वो पत्ते,

हरे-हरे, स्वच्छ, सुंदर, मुस्कुराते,
उस पेड़ से जुड़े होने का एहसास पाते,

उस एहसास के लिए,
खोने में अपना अस्तित्व
ना ज़रा सकुचाते,

पड़ें दरारें चाहे चेहरों पर उनके,
रिश्तों मे दरारें कभी वो ना लाते,

किंतु,

वही पत्ते जब सुख जाते,
किसी काम पेड़ों के जब आ ना पाते,

वही पत्ते उसी पेड़ द्वारा
ज़मीन पर गिरा दिए जाते,

लेते विदा उनसे,
यूँही मुस्कुराते,
सदा मुस्कुराते I